Parle-g की सफलता की कहानी | Parle-g girl कौन हैं | Parle-g का रोचक सफर | parle g company history | parle-g girl history

Parle-g की सफलता की कहानी-

    भारत का शायद ही कोई ऐसा घर होगा जहां Parle-g बिस्किट नहीं आता होगा,आप में से बहुत सारे लोग आज भी ऐसे होंगे, जिनकी चाय Parle-g बिस्किट के बिना अधूरी है | बेहद ही  सस्ता और स्वादिष्ट यह बिस्किट पूरी दुनिया में लोकप्रिय है |  parle-g समाज का हर वर्ग चाहे वह गरीब हो या अमीर चाहे वह बच्चा हो या बुढा हर कोई खाता है और हां आप सभी ने भी तो यह बिस्किट खाया ही होगा, आखिर बचपन में यही तो मिलता था |  हां मैं मानता हूं कि आज आपके पास बहुत सारे ऑप्शन उपलब्ध है, बाजार में कई तरह के बिस्किट्स मौजूद है लेकिन बचपन की उन यादों को बुलाया तो नहीं जा सकता तो चलिए दोस्तों हम भारत के सबसे पुराने बिस्किट Parle-g के बारे में थोड़ी डिटेल में बातें करते हैं |

parle-g girl history


    1929 में जब भारत अंग्रेजों का गुलाम था उसी समय मुंबई के विले पारले में , पारले प्रोडक्ट्स नाम की एक छोटी सी कंपनी का निर्माण हुआ था जहां मुख्यत: टॉफियों का उत्पादन किया जाता था और फिर करीब 10 सालों के बाद कंपनी ने बिस्किट का उत्पादन करना भी शुरू कर दिया इसके अच्छे क्वालिटी और सस्ते दाम की वजह से यह कंपनी बहुत ही जल्द प्रसिद्ध होने लगी | 

    भारत की आजादी से पहले देश में काफी अंग्रेजों का दबदबा था, विदेशी चीज है हर जगह भारतीय मार्केट में बेची जाती थी उनके दाम भी काफी ज्यादा होते थे, इसलिए सिर्फ अमीर लोग ही उनका मजा ले पाते थे | उस समय अंग्रेजों द्वारा केन्डी लाई गई थी, मगर वह भी सिर्फ अमीरों तक ही सीमित थी ,यह बात मोहन लाल दयाल को पसंद नहीं आई, वह  स्वदेशी आंदोलन से काफी प्रभावित थे , और इस भेदभाव को खत्म करने के लिए उन्होंने उसका ही सहारा लिया ,उन्होंने सोच लिया था कि वह भारतीयों के लिए भारत में बनी कैंडी लाएंगे ताकि वह भी इसका मजा ले सकें| 

     इसके लिए वह जर्मनी निकल गए वहां उन्होंने कैंडी बनाना सीखा और 1929 में ₹60,000 में खरीदी कैंडी मेकर मशीन को अपने साथ भारत लेकर आए |  यूं तो मोहन लाल दयाल का अपना खुद का रेशम का व्यापार था, लेकिन फिर भी उन्होंने भारत आकर एक नया व्यापार शुरु किया | उन्होंने मुंबई के पास स्थित विरला पार्ला में एक पुराणी फैक्ट्री खरीदी |  कंपनी के पास शुरुआत में सिर्फ 12 कर्मचारी ही थे ,और यह सभी मोहन लाल दयाल के परिवार वाले ही थे |  उन सब ने मिलकर दिन रात एक किए और पुरानी सी फैक्ट्री को एक नया रूप दिया |  हर कोई कंपनी को बनाने में इतना व्यस्त हो गया था, कि उन्होंने यह भी नहीं सोचा कि आखिर इसका नाम क्या रखा जाए |  जब कोई भी नाम समझ नहीं आया तो आखिर में कंपनी का नाम उस जगह के नाम पर रखा गया |  जहां उसकी शुरुआत हुई थी कंपनी पारला में खोली गई थी इसीलिए इसका नाम थोड़े बदलाव के साथ Parle रखा गया  | 

     इसके बाद फैक्ट्री में जो सबसे पहली चीज बनाई गई थी, वो थी एक ऑरेंज कैंडी |  इतना ही नहीं यह कैंडी काफी पसंद की गई और थोड़े ही वक्त में पारले ने कई और भी कैंडी बनाई | अंग्रेज अपनी चाय के साथ बिस्किट खाया करते थे मगर यह भी सिर्फ अमीरों तक ही सीमित था इसीलिए मोहनलाल दयाल ने सोचा कि क्यों न कैंडी की तरह बिस्किट भी भारत में ही बनाए जाए इसके बाद 1939 में उन्होंने शुरुआत की पारले ग्लुको की गेंहू से बना यह बिस्किट इतने कम दाम का था कि अधिकांश भारतीय इसे खरीद सकते थे इसका सिर्फ दाम ही काम नहीं था बल्कि इसका स्वाद ही काफी बढ़िया था देखते ही देखते आम लोगों के बीच यह काफी प्रसिद्ध होने लगा माना जाता है | 

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    माना जाता हैं कि न सिर्फ भारतीय बल्कि कई ब्रिटिशर्स भी पारले ग्लुको का स्वाद लिया करते थे पारले ग्लूको इतनी तेजी से आगे बढ़ा कि मार्केट में मौजूद ब्रिटिश ब्रांड के बिस्किट पीछे होने लगे हर कोई इसकी पॉपुलरटी के आगे झुकने लगा था | 

     सेकंड वर्ल्ड वॉर खत्म होने तक पार्ले ग्लुको एक काफी बड़ा ब्रांड बन चुका था |  हालांकि विश्व युद्ध खत्म होने के बाद पारले ग्लूको को अपना प्रोडक्शन बंद करना पड़ा, ऐसा नहीं था कि कंपनी घाटे में चल रही थी या उसके पास प्रोडक्शन के लिए पैसा नहीं था |  प्रोडक्शन बंद करने की असली वजह थी, देश में गेहूं की कमी | जैसे ही भारत 1947 में अंग्रेजों के राज से मुक्त हुआ और देश का विभाजन हुआ तो यह कमी और भी बढ़ गई |  पार्ले कंपनी को इतना रो मटेरियल नहीं मिल पा रहा था, कि वह प्रोडक्शन जारी रख पाए |  ऐसे में कुछ वक्त लिए उन्हें अपना पूरा प्रोडक्शन रोकना पड़ा | 

   प्रोडक्शन रोकने के कुछ समय बाद ही लोगों को पारले ग्लुको की कमी सताने लगी थी कंपनी को भी इसका अहसास हुआ और कंपनी ने ये वादा किया कि जैसे ही हालात सुधरेंगे वह प्रोडक्शन फिर से शुरू कर देंगे | 

    1982 वो साल था जब पार्ले ग्लुको का नाम बदलकर उसका नाम parle-g कर दिया गया कंपनी का नाम बदलने का कोई इरादा नहीं था मगर उन्हें यह मजबूरन करना पड़ा ग्लुको शब्द ग्लूकोज़ से बना था ,पारले के पास इसका कोई कॉपीराइट नहीं था | इसीलिए कोई भी इसे इस्तेमाल कर सकता था | इसी चीज का फायदा उन बिस्किट ब्रांड ने  उठाया जो अभी तक पार्ले ग्लुको के पीछे चल रहे थे |  देखते ही देखते मार्केट में बहुत सारे ग्लुको बिस्किट आ गए हर कोई अपने बिस्किट के नाम के पीछे ग्लुको या ग्लुकोज का इस्तेमाल करने लगे , इसके कारण लोग पार्ले ग्लुको और बाकी बिस्किट के बीच में फस गए |  इसके कारण पार्ले ग्लुको की सेल पर काफी असर पड़ा | यही कारण रहा कि 1982 में उन्होंने फैसला किया कि वह अपने नाम से ग्लुको हटाकर सिर्फ 'जी' रखेंगे |  इसके साथ ही उन्होंने नाम बदलकर एक और नई पारी की शुरुआत की | 

    2003 में Parle-g  दुनिया में सबसे ज्यादा बेचा जाने वाला बिस्किट घोषित किया गया जैसे-जैसे वक्त बीतता गया Parle-g एक साम्राज्य की तरह हो गया |  2012 में जब कंपनी ने बताया कि सिर्फ बिस्किट से ही उन्होंने करीब 5000 करोड़ की सेल की है तो हर कोई हैरान हो गया |  parle-g भारत का पहला ऐसा FMCG  ब्रांड था जिसने ये आंकड़ा छुआ था तब से लेकर अब तक Parle-g की प्रोडक्शन पर कुछ खास फर्क नहीं पड़ा है आंकड़ों की मानें तो हर साल कंपनी करीब 14600 करोड़ बिस्किट बनाती है ये बिस्किट करीब 6 मिलियन स्टोर्स में भेजे जाते हैं इसकी वजह से ही आज कंपनी करीब 16  मिलियन डॉलर का रेवेन्यू कमा पाती है |  ये दर्शाता हैं  कि भले ही इतने वक्त में मार्केट में कई बदलाव आ गए हैं लेकिन  Parle-g ने किसी न किसी तरह खुद को आज भी बनाए रखा है आज भी बच्चों से लेकर बड़ों तक हर किसी को यह पसंद आता है |  

 Parle-g girl history | Parle-g girl कौन हैं -

इस बिस्कुट के कवर पर दिखने वाली बच्ची को लेकर बहुत कंट्रोवर्सी रही है. इस फोटो वाली बच्ची के लिए तीन महिलाओं के नाम का दावा किया जाता रहा है. मतलब तीन लोगों के बारे में ये कहा जाता रहा है कि वो इस फोटो में दिख रही हैं.

पहले इसके कवर पर गाय और ग्वालन बनी होता थीं लेकिन बाद के दशक में उस ग्वालन को इस प्यारी सी बच्ची ने रिप्लेस कर दिया.

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इसके रैपर का कलर शुरू से ही सफेद और पीला रहा है. लेकिन इसके ऊपर दिखने वाली बच्ची को लेकर बहुत बार बहस हो चुकी है. नीरू देशपांडे, सुधा मूर्ति  और गुंजन गंडानिया नाम की तीन महिलाओं के इस बच्ची होने का दावा किया जाता रहा है. लेकिन मीडिया में नीरू देशपांडे को ही ये बच्ची माना गया है. नीरू के इस फोटो के पीछ की कहानी ये है कि जब वो साढ़े 4 साल की थीं, तब उनके पापा ने ये फोटो खींची थी. वो कोई प्रफोशनल फोटोग्रफर नहीं थे, लेकिन उनकी खींची इस फोटो को जिसने देखा उसने पसंद किया. इन्हीं चक्करों में ये फोटो किसी ऐसे आदमी के हाथ लग गई, जिसकी पारले वालों के साथ जान-पहचान थी. और इस तरह से उन्हें पारले के पैकेट पर फीचर होने का मौका मिल गया. हालांकि नीरू अब 62 साल की उम्रदराज़ महिला हो चुकी हैं. | 

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